भूपेंद्र कुमार दवे की कविता ---
ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
दर्द रहे या न रहे गुंजन में
ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
चाहे मौसम आकाश बदल दे
या फूलों का श्रृंगार बदल दे
या शूलों का संस्कार बदल दे
धर्म कर्म के आधार बदल दे
ये मुक्त रहेंगे हर बंधन में
ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
भरना चाहे दुःख सारी कटुता
गर गीतों के मीठे गुंजन में
पर पल भर ही तेरी वाणी भी
स्वर भर जावे मेरे क्रंदन में
तो आँसू से तर इस माटी में
ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
कठोर काल-चक्र में उलझा गर
यह जीवन-क्रम भी थम थम जावे
या विरानेपन की चीत्कारें
कोलाहल में घिर मिट मिट जावे
फ़िर भी चुप ना होंगे चिंतन में
ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
क्वारी माटी घट बन जब संवरी
जाने किस कारण कब फूट गई
बूढी, बरगद-सी, यादें सारी
शुष्क डाल -सी सब चटक गई
गंध रहे या न रहे चंदन की
ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
महल बने सपनों का अति सुदर
जाने कब यह भी ढह ढह जावे
औ तपस्वनी प्यारी कुटिया भी
इस जग बन दूषित रह जावे
मिल जावे विष भी गर चुम्बन में
ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
फूलों की मधु मुस्कानें भी सब
घुल शबनम में आँसू बन जावे
या वसंत का श्रृंगार मिटने
डाल डाल पर बस कांटे उभरें
साथ भ्रमर के इस मन उपवन में
ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
विष-कन्या- सी बनकर यह काया
चाहे प्राणों को विष ही दे दे
चाहे प्याला मधुशाला का भी
अपने में कुछ विष भर कर दे दे
पर चरणामृत पाने की धुन में
ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
00000
कैसे जानूं अभिलाषा मन की
कैसे जानूं अभिलाषा मन की
लंगड़ी आशा बनी हुयी है
बैशाखी मेरे जीवन की
देख देखकर पथ के काँटे
कैसे चलता राह चमन की
दूर हुआ जो तेरे पथ से
काँप उठा सुन बात मरण की
कैसे जानूं अभिलाषा मन की
मंदिर मन से दूर नहीं है
मुक्ति कहाँ है , पर बंधन की
देख देखकर तन की पीड़ा
थाल गिरी मेरे पूजन की
दूर हुआ जो अपने मन से
काँप उठा सुन बात तपन की
कैसे जानूं अभिलाषा मन
यह काया है कोमल कलुषित
क्या जाने अभिलाषा मन की
हर पल अपनी सोच समझ से
भर लाती त्रुटियाँ यौवन की
अंत समय में पीड़ा सारी
भर जाती सांसें पीडन की
कैसे जानूं अभिलाषा मन की
00000
काँपते हैं गीत मेरे
काँपते हैं गीत मेरे
सुर पतझर बन गए
शब्द अपनी धुन में रहे
स्वर नश्वर बन गए
दूर नभ में फैलती थी
लय कोकिल कंठ की
वीरान में चीत्कार है
किसी रिक्त कंठ की
वेदना से गीत के थे
बोल भंवर बन गए
काँपते हैं गीत मेरे
सुर पतझर बन गए
विष से भरा अमृत कलश
मन को वो दे गए
बन जाय अभिशाप क्षण में
वर ऐसा दे गए
है मन मंदिर उन्हीं का
जो पत्थर बन गए
काँपते हैं गीत मेरे
सुर पतझर बन गए
कल्पना की आरती के
शब्द दीप हैं सभी
तेरा अधर पट खोलता
गीत मीत था कभी
अब नयन को ही रिझाने
अश्रु भोंरे बन गए
काँपते हैं गीत मेरे
सुर पतझर बन गए
गीत गुंजन में कभी भी
कुछ कम्पन था नहीं
शब्द बंधन की वेदना
थी ना बिलकुल कहीं
पीर के घुंघरू सभी अब
बन अक्षर रह गए
काँपते हैं गीत मेरे
सुर पतझर बन गए
00000
गीतों में आवाज सजा लूँ
चाहूँ अब मैं फिर गीतों में
दर्द भरी आवाज सजा लूँ
पलकों के पलनों पर सोये
नटखट आँसू पुनः जगा लूँ
चाहूँ की पीड़ा की वाणी
काँटों से फूलों पर लिख दूँ
इन फूलों का मधुरस लेकर
जीवन घट अपना भी भर लूँ
चाहूँ सब शबनम से आँसू
चुन चुन मोती सजल बना लूँ
पलकों के पलनों पर सोये
नटखट आँसू पुनः जगा लूँ
आहों का कोलाहल हो तो
उनमें अपने प्राण बसा लूँ
दुःख की गूंगी कीलों पर
पीड़ा के कुछ चित्र सजा लूँ
पीड़ा के मेले में जा कर
आँसू का कुछ मोल बढ़ा लूँ
पलकों के पलनों पर सोये
नटखट आँसू पुनः जगा लूँ
काजल आँसू बन छलके तो
अपना परिचय उससे लिख दूँ
कोतूहल वश पढूँ तो मैं भी
अपनी आँखें गीली कर लूँ
जीवन के सुने पन्नों पर
पीडाक्षर लिख दर्द बड़ा लूँ
पलकों के पलनों पर सोये
नटखट आँसू पुनः जगा लूँ
चाहूँ श्वास कुंवारी का अब
सखी पीड़ा से श्रृंगार करा दूँ
लौट न जाये बरात आह की
झट पट उसका ब्याह रचा दूँ
कन्यादान कर यूँ साँस का
जन्म मरण से मुक्ति पा लूँ
पलकों के पलनों पर सोये
नटखट आँसू पुनः जगा लूँ
०००००
टूटी साँसों की वीणा पर
टूटी साँसों की वीणा पर
हम गीत सुनाये जाते हैं
बिखरे उलझे इन तारों पर
सुर मधुर उगाये जाते हैं
कुछ दीपक हैं जलते बुझते
विरह मिलन के सपनों से
धुप छाँव में चलते रहते
बिछुड़े जब जब अपनों से
टूटी बिखरी आशाओं का
नव गीत सजाये जाते हैं
टूटी साँसों की वीणा पर
हम गीत सुनाये जाते हैं
कुछ शब्दों के नन्हे पलने पर
भाषा क्यूँ कर सोती है
क्यों छंद बंध के छलने पर
लोरी करुणामय होती है
जुगनू की सी नन्ही इच्छायें
लयबद्ध बनाये जाते हैं
टूटी साँसों की वीणा पर
हम गीत सुनाये जाते हैं
मायावी घुंघट जीवन का
आँधी में उड़ जाता है
रूप सलोना सावन का
दुःख की बदली बन जाता है
कंठ नहीं , पर नम पलकों से
हम गीत सुनाये जाते हैं
टूटी साँसों की वीणा पर
हम गीत सुनाये जाते हैं
थके पंख की बुलबुल पूछे
मधुमास नहीं क्यूँ आता है
कोयलिया से खग गण रूठे
पतझर उसे क्यूँ भाता है
माटी के तन को गति देने
हम गीत सुनाये जाते हैं
टूटी साँसों की वीणा पर
हम गीत सुनाये जाते हैं
साँसों के तिनकों को बुनकर
मृत्यु नीड़ बनता जीवन
मेघ रूप में अश्रु बरसकर
मिटा रहे हर एक तपन
मृदंग की मधुर थाप लिए
हम अश्रु गिराए जाते हैं
टूटी साँसों की वीणा पर
हम गीत सुनाये जाते हैं
00000
प्यार करना क्या है कोई नहीं जनता
प्यार करना क्या है कोई नहीं जनता
सिवा तेरे मेरे कोई नहीं जनता
कोई नहीं जनता
ये जमीन वही है
आसमान वही है
टिमटिमाते तारे
ये चाँद वही है
रो रही क्यूँ शबनम कोई नहीं जनता
प्यार करना क्या है कोई नहीं जनता
सिवा तेरे मेरे कोई नहीं जनता
कोई नहीं जनता
बहार तो आये जाये
पतझर भी आये जाये
हवाओं में महकती
खुशबू भी आये जाये
फूल महके क्यूँ थे कोई नहीं जनता
प्यार करना क्या है कोई नहीं जनता
सिवा तेरे मेरे कोई नहीं जनता
कोई नहीं जनता
ये समुन्दर वही है
तूफान भी वही है
पर किनारों का पता
कुछ मिलता नहीं है
लहर मचली क्यूँ थी कोई नहीं जनता
प्यार करना क्या है कोई नहीं जनता
सिवा तेरे मेरे कोई नहीं जनता
कोई नहीं जनता
०००००
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ
अपने तन से बिदा मांगने
मैं नम पलकें ले आया हूँ
तुने प्राण भरे थे मुझमें
ऊँच नीच का ज्ञान नहीं था
हर सांसों में चंचलता थी
धर्म कर्म का ज्ञान नहीं था
अंत समय की इस बेला में
कर्तव्य निभाने आया हूँ
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ
जो कुछ तुझ को सूझ पड़ा था
वही कर्म बस मुझसे करवाया
पाप पुण्य सब तेरे कारण
मैं जीवन में करता आया
कैसी है अब काया मेरी
मैं यही देखने आया हूँ
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ
जीवन भर तो मैंने अपनी
परछाईं तक नहीं निहारी
चहुँ ओर थी तेरी महिमा
नहीं कहीं थी बात हमारी
अब होगी कुछ बातें मेरी
सुनने वही चला आया हूँ
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ
शब्दों का श्रृंगार अधर पर
पर नयनों में था अर्थ गहन
रूप अनूप व योवन मद था
निज चिंतन में था मस्त मगन
लिख रक्खी जो कविता दिल में
मैं वही चुराने आया हूँ
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ
क्रोध भभक उठता था जब भी
बस शांत उसे मैं करता था
सर्प सरीखा दर्प उठा तो
मैं उसको कुचला करता था
दर्प हीन उस शांत चित्त का
मैं दर्शन करने आया हूँ
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ
कौन उसे अब कान्धा देगा
यह अर्थी को ज्ञात नहीं है
भक्त नहीं है कोई इसका
जग में भी विख्यात नहीं है
इस कारण ही देखो मैं ही
दो फूल चढाने आया हूँ
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ
तुने नैया मुझको दी पर
मेरे हाथों पतवार न दी
फिर तू आंधी भी ले आया
जिसको मेरी परवाह न थी
वही नाव यह खंडित शव है
मैं जिसे देखने आया हूँ
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ
अपने पद्छिन्हों पर चलने
तुने ही यह पथ दिखलाया
पर बैसाखी तुने छीनी
और अपाहिज मुझे बनाया
कैसी हालत मेरी कर दी
मैं वही देखने आया हूँ
मेरी अर्थी पड़ी हुई है
मैं शीश नवाने आया हूँ
अपने तन से बिदा मांगने
मैं नम पलकें ले आया हूँ
०००००
सागर तट पर बैठ
सागर तट पर बैठ किनारे
तू बाट जोहता मेरी है
लौट रही क्या किश्ती मेरी
तू राह जोहता मेरी है
तुने ही मेरी किश्ती को
जर्जर काया दे रक्खी थी
टूटी सी पतवार बिचारी
मेरे हाँथों दे रक्खी थी
फिर प्रचंड तूफान को तुने
फुसलाया था , बिचकाया था
ऊँची उठती लहरों को भी
चुपके से जा उकसाया था
अब क्यूँ पछताता है तू भी
कुछ कुछ गलती तो मेरी थी
अब क्यूँ उदास बैठ किनारे
तू बाट जोहता मेरी है
सागर तट पर बैठ किनारे
तू बाट जोहता मेरी है
हर्षित था वह हर क्षण मेरा
जब मैं लहरों से लड़ता था
पर हताश जब मुझको जाना
तू सुमरन किसका करता था
नतमस्तक था किसके आगे
लहरों या तूफानों के आगे
पूज रहा था किसको मन में
माला जपता था किसके माने
चहूँ और तो तू ही तू है
हर मूरत सुन्दर तेरी है
इस सागर की बूँद बूँद में
जो छवि है बस तेरी है
मत हताश हो मेरे मालिक
यह किस्मत अपनी मेरी है
फिर क्यूँ तट पर बैठ किनारे
तू बाट जोहता मेरी है
सागर तट पर बैठ किनारे
तू बाट जोहता मेरी है
डूब गया तो डूब गया पर
दोष नहीं मैं तुझको दूँगा
सागर की गहराई पाकर
तुझमें ही जाकर बैठूँगा
फिर चाहे तू कुछ भी कर दे
किश्ती को भी जीवित कर दे
और चलकर उसे किनारे
सागर के तट लाकर रख दे
पर सागर की गहराई में
अविचलित शांति बस मेरी है
फिर क्यूँ तट पर बैठ किनारे
तू बाट जोहता मेरी है
देख रहा हूँ जाने कब से
तू बाट जोहता मेरी है
सागर तट पर बैठ किनारे
तू बाट जोहता मेरी है
०००००
खामोश जिन्दगी
कलियों के खिलने की आवाज़ सुनी
शबनम के झरने की आवाज सुनी
खामोश इतनी है मेरी जिन्दगी
आँसू के गिरने की आवाज सुनी
०००००
जिन्दगी
यह जिन्दगी अजनबी सी लगती है
हर वक्त कुछ अटपटी सी लगती है
उलझ गयी जो कंटीली झाड़ियों में
उस मासूम पंखुड़ी सी लगती है
०००००
तलाश
अँधेरे में प्रकाश की तलाश थी
बुझते दीपक की लौ भी हताश थी
मुट्ठी खोलकर भी क्या देखता मैं
जुगनू की सहेजकर रखी लाश थी
00000
डर
डर
इधर है
उधर है
नगर नगर
डगर डगर
जिधर देखो
उधर डर है
जीवन क्षणभंगुर है
मगर डर निरंतर है
डर
तन मन जिगर के अन्दर है
घर के अन्दर, घर के बाहर है
खंजर सा सिर के ऊपर है
नीचे जमीं पर अजगर है
डर
जो डरा वह जेल के अन्दर है
जो निडर है देश का लीडर है
पर उसे भी डर जाने का डर है
हर कहीं डरता डराता डर है
डर
खुद से ही डरा हुआ डर है
डरने का भी उसे डर है
पर
जो डराए वो सिकंदर है
डर जाये चुकंदर है
डर
बारूद भरा ट्रांसमीटर है
फटा हुआ गैस सिलंडर है
फूटा हुआ प्रेशर कूकर है
डर
तारीखवार एक कैलेंडर है
प्रथम महायुद्ध का सरेंडर है
द्वितीय महायुद्ध का हिटलर है
तृतीय महायुद्ध में छिपा बबंडर है
डर
फ़िलहाल सट्टे का नंबर है
क्रिकेट में फैंका bouncer है
पर डरता सा अम्पायर है
जैसे डार्विन का इक बन्दर है
डर
बिना पढ़े लफंगा लोफर है
पढ़े लिखे तो डिग्री होल्डर है
unemployed फटीचर है
या सिरफिरा एक अफसर है
डर
निडर है तो वह घर का नौकर है
जिसे झाड़ू पौंछे का चक्कर है
पर होता पूरा शर्कर है
या दिखने में गुड गोबर है
डर
असल में एक अदना आफिसर है
डरा सहमा इनकम टैक्स पेयर है
समय के साथ होता सीनिअर है
अब वह डरने डराने में माहिर है
डर
डाक्टर है तो जहर पिलाता है
बड़ा बिल देकर डकारता है
इंजिनियर है तो फैंका हुआ फर्नीचर है
या फिर दौलत का sky creeper है
डर
यदि निडर है
जेल जाने से
बेफिक्र है
सजा पाने से
तो
डान सा स्मगलर है
या ब्लैक मार्केटियर है
प्ले बॉय का फोटो ग्राफर है
सड़क छाप जेबक्टर है
डर
छोटा बच्चा है
तो दिल का कच्चा है
पर यदि इरादा पक्का है
तो खाता नहीं गच्चा है
कल से ही उसका पेपर है
किन्तु वह बिलकुल निश्फिकर है
पेपर आउट की उसे खबर है
और वह नक़ल चोर पेशेवर है
जेब में रखे चिल्लर है
सामने सिनेमा घर है
दिल में जिसका फिगर है
बस उसी का पिक्चर है
डर
घर घर है
वायरल है
बीवी का खिंचा तेवर है
कंप कंपता शोहर है
चाहे बैरिस्टर हो या फिर मिनिस्टर हो
या दी लिट प्रोफ़ेसर हो
शेर बब्बर घर के बाहर है
भीगी बिल्ली घर के अन्दर है
डर
गुर्राती बीवी सा टोस्टर है
या फिर सहमा सहमा फीजर है
बढ़ा हुआ सा ब्लड प्रेशर है
या नन्हा सा एकुप्रेसर है
डर
बीवी म्यूजिक डायरेक्टर है
शोहर प्ले बेक सिंगर है
जिन्दगी का स्टंट पिक्चर है
पुरुषार्थ तो मात्र पोस्टर है
डर
गाजर के हलुए में किसा गाजर है
चटनी में पिसे अदरक का असर है
मिर्ची का झोंका है
करेले का टुकड़ा है
डर
एक हाथ में सिल पत्थर है
दूजे में साली का लव लेटर है
उछले बेलन का बम्पर है
जिसकी सर से पक्की टक्कर है
डर
डर के अपने तेवर हैं
होसले इसके नोकर हैं
डर
कभी तो हंटर है
निकालता जो कचूमर है
कभी ये जेवर है
जो बनाता सिंसियर है
डर
यह बड़ा शनिचर है
रखता कड़ी नजर है
लैला के दिल के अन्दर है
मजनू के दम के भीतर है
पर
जो भी हो डर, डर है
डर अजर है, अमर है
बिना डराए जो डरता है
डरने में पहला नंबर है
जो डर डर के डरता है
वही मस्त कलंदर है
जो सिर्फ डराने को डराता है
वह लाल मुंह का बन्दर है
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